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उत्तराखंड पंचायत चुनाव: भाजपा और कांग्रेस की हार से क्या सीख मिली?

उत्तराखंड के पंचायत चुनाव के नतीजे अब सबके सामने हैं। इस बार के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों को बड़ा झटका लगा है। दोनों पार्टियों के कई प्रमुख प्रतिनिधि हार गए, जबकि निर्दलीय उम्मीदवारों ने अच्छा प्रदर्शन किया। यह चुनाव हमें बताता है कि गांव के लोग अब अपनी समस्याओं को खुद समझते हैं और वोट देते समय सोच-समझकर फैसला लेते हैं। आइए, हम इस पर थोड़ा विचार करें कि यह हार क्यों हुई और इससे क्या सबक मिलता है। मैं यहां कोई मजाक या व्यंग्य नहीं कर रहा, बस समझदारी से बात कर रहा हूं, जैसे गांव में लोग आपस में चर्चा करते हैं।

चुनाव के नतीजे क्या कहते हैं?

इस पंचायत चुनाव में कुल 205 जिला पंचायत सीटों पर वोटिंग हुई। निर्दलीय उम्मीदवारों ने सबसे ज्यादा 61 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा को 58 और कांग्रेस को 76 सीटें मिलीं। ग्राम प्रधान के 7499 पदों पर भी निर्दलीयों का दबदबा रहा। इस त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में मतदान प्रतिशत 69% फीसदी रहा, जिसमें महिलाओं ने 74% हिस्सा लिया। यह दिखाता है कि लोग चुनाव को गंभीरता से ले रहे हैं।

भाजपा की बात करें तो कई जगह उनके मजबूत नेता हार गए। जैसे, बद्रीनाथ इलाके में प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट के गढ़ में हार मिली। नैनीताल में एक विधायक की पत्नी चुनाव हारीं। अल्मोड़ा में मंडल अध्यक्ष संतोष कुमार और उनकी पत्नी दोनों तीसरे स्थान पर रहे। सल्ट विधायक के बेटे करन जीना को क्षेत्र पंचायत सीट हार गए। हल्द्वानी की जिला पंचायत अध्यक्ष बेला टोलिया को निर्दलीय ने हराया।

 

कांग्रेस की स्थिति भी कुछ वैसी ही रही। देहरादून में उन्होंने 12 सीटें जीतीं, लेकिन कुल मिलाकर वे निर्दलीयों से पीछे रहे। चमोली जिले में निर्दलीयों ने बाजी मारी। अल्मोड़ा के लमगड़ा ब्लॉक में निवर्तमान ब्लॉक प्रमुख विक्रम बगड़वाल हार गए। कई जगह एक-एक वोट से हार हुई, जैसे अल्मोड़ा के बमनगांव में।

 

ये नतीजे बताते हैं कि बड़ी पार्टियां अब गांव स्तर पर उतनी मजबूत नहीं रहीं, जितनी वे सोचती हैं।

हार के पीछे क्या कारण हैं?

गांव के लोग अब पहले से ज्यादा जागरूक हैं। वे पानी, सड़क, रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ध्यान देते हैं। भाजपा और कांग्रेस अक्सर बड़े-बड़े वादे करती हैं, लेकिन गांव में असली काम कम दिखता है। सरकारी योजनाएं तो चलती हैं, लेकिन नेता चुनाव के बाद गांव में कम नजर आते हैं। निर्दलीय उम्मीदवार इसी का फायदा उठाते हैं, क्योंकि वे स्थानीय होते हैं और लोगों की समस्याओं को बेहतर समझते हैं।

इस चुनाव में युवा और महिलाओं की भूमिका बड़ी रही। पौड़ी में 22 साल की साक्षी ने बी.टेक करने के बाद गांव लौटकर प्रधान का चुनाव जीता। उत्तरकाशी में 23 साल की रवीना रावत ने 2354 वोटों से जीत हासिल की। बागेश्वर में लच्छू भाई ने क्षेत्र पंचायत सदस्य का पद जीता। कुछ जगह वोट बराबर होने पर टॉस या पर्ची से फैसला हुआ‌।

बड़ी पार्टियां लोकसभा या विधानसभा चुनावों में जीतती हैं, लेकिन पंचायत स्तर पर वे कमजोर पड़ जाती हैं।

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