उत्तरकाशी के धराली गांव में आई हाल की आपदा ने हिमालयी क्षेत्रों की नाजुकता और बदलते मौसम की चुनौतियों को फिर से उजागर कर दिया है। इस पूरी घटना की तह में जाने पर विशेषज्ञों और सेटेलाइट तस्वीरों से साफ पता चलता है कि इस बार तबाही किसी बादल फटने या झील के टूट जाने से नहीं, बल्कि ऊपरी इलाके में जमा बर्फ, पत्थर और मिट्टी यानी ग्लेशियर डिपोजिट के एक बड़े हिस्से के अचानक टूट कर गिरने से आई। ये जगह धराली से लगभग 7 किलोमीटर ऊपर, 6700 मीटर की ऊंचाई पर है जहां सालों से मलबा इकट्ठा था।
चूंकि मौसम विभाग (आईएमडी) भी इस बात से सहमत नहीं कि यह केवल बादल फटने की घटना थी, क्योंकि बादल फटने के लिए एक निर्धारित मात्रा में बारिश होना जरूरी होता है, जो धराली में नहीं दिखी।
इस भारी मलबे का दबाव और मौसम में बदलाव जैसे कारणों से अचानक तेज रफ्तार में ढलान को पार करता हुआ नीचे आया। देखते ही देखते बर्फ, पत्थर और मिट्टी के इस प्रवाह ने धराली गांव, खेतों, सड़कों और मकानों को अपनी चपेट में ले लिया, जिससे इस क्षेत्र में भारी नुकसान हुआ। शुरू में इस घटना को लेकर संदेह था कि शायद कोई झील फटी हो, लेकिन वैज्ञानिक निरीक्षण से साबित हुआ कि इस बार घटना की वजह अस्थिर ढलान पर जमा मलबा था, जिसने अचानक अपना संतुलन खो दिया।
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इस तरह की घटनाएं आमतौर पर या तो बर्फ के तेजी से पिघलने, अत्यधिक बारिश, गर्मी बढ़ने या पहाड़ों पर धरती के कमजोर होने से होती हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, अब हिमालय जैसे क्षेत्रों में मौसम अत्यधिक बदल रहा है।
इस घटना को केवल एक प्राकृतिक आपदा मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह भविष्य के लिए चेतावनी है कि पहाड़ों में बसे गांवों, सड़कों और अन्य ढांचों को लेकर योजना बनाते वक्त स्थानीय भूगोल, पुराने मलबे और मौसम के बदलाव का विशेष ध्यान रखना होगा। साथ ही, सतत निगरानी, समय रहते चेतावनी और विज्ञान पर आधारित आपदा प्रबंधन को मजबूत करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि ऐसे हादसों की गंभीरता कम की जा सके और मानव जीवन एवं संपत्ति की रक्षा हो सके।