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10 साल हो गए पॉक्सो एक्ट के, संशोधन के बाद भी साबित हुआ छलावा

By Nikhil Arvindu

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पॉक्सो एक्ट के दस साल फोटो
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14 नवंबर 2012 को यौन अपराधों से बच्चों के सरंक्षण अधिनियम यानी पॉक्सो एक्ट लागू किया गया था। जिसे महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा लाया गया था। जिसका मुख्य उद्देश्य था 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को यौन हिंसा से बचाना। अधिनियम अपने सफर के 2022 में 10 साल पूरे कर चुका है। क्या इस अधिनियम के माध्यम से समाज में व्याप्त बच्चों के प्रति हो रहे यौन हिंसा को रोका जा सका है या फिर उसमें कमी लाई जा सकी है या फिर इस अधिनियम ने एक सकारात्मक परिणाम देने की कोशिश की है।

क्या कहते हैं आंकड़े

हाल में ही इसके 10 वर्ष पूरे होने के तौर पर प्रोत्साहन इंडिया फाउंडेशन ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट के मुताबिक पॉक्सो यानी प्रोटक्शन आफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेस एक्ट के बावजूद भी 10 वर्षों में दुष्कर्म के मामलों में 290 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है। 2012 में दुष्कर्म से जुड़े मामलों की संख्या 8541 से बढ़कर 2021 में 83348 हो गई है। 

यह सिर्फ 2021 तक का आंकड़ा है और आप इसी आधार पर अनुमान लगाकर सोच सकते हैं कि 2022 के 10 महीनों में इस आंकड़ों में कितनी वृद्धि हुई होगी। अगर आंकड़ों को जेंडर वर्ग के नजरिए से देखें तो एनसीआरबी की रिपोर्ट 2018 के मुताबिक कुल 1 लाख 26 हजार 767 बच्चों के खिलाफ यौन शोषण के मामले दर्ज हुए हैं। जिनमें से 1 लाख 25 हजार 560 बच्चियां यानी 99 फ़ीसदी बच्चियां यौन हिंसा का शिकार हुई है। यह केवल 2017 तक का आंकड़ा है। बाकी आप 5 सालों के आंकड़ों को इसी आंकड़ों के आधार पर शिकार होने वाली बच्चियों के आंकड़ों का अनुमान स्वयं लगा सकते हैं।

64 फीसदी मामले पेंडिंग

प्रोत्साहन इंडिया फाउंडेशन ने अपनी रिपोर्ट में न्याय को लेकर भी जिक्र किया है। इस एक्ट के तहत दर्ज किए गए मामले में कुल 64 फ़ीसदी मामले अभी भी न्याय की घड़ी की इंतजार में है। इस एक्ट के तहत यह सुनिश्चित किया गया है कि मामले के संज्ञान लेने की तारीख से 1 वर्ष के भीतर तक मुकदमे का निपटारा किया जाना सुनिश्चित किया जाए। लेकिन इन लंबित मामलों को लेकर के यह सवाल उठना लाजमी है कि शायद ही इस अधिनियम के तहत वर्ष वर्ष भर के अंदर मुकदमों का निपटारा किया जाता होगा।

सर्वाधिक यौन हिंसा का शिकार होने वाली बच्चियों के मामले को आयु के हिसाब से देखें तो एनसीआरबी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 16 से 18 वर्ष की 47% लड़कियां यौन हिंसा का शिकार हुई है, वहीं 13 से 16 वर्ष की आयु में 39% लड़कियां यौन हिंसा का शिकार हुई है। इन आंकड़ों को देखकर के अब यही सवाल मन में उठता होगा, यौन हिंसा को न रोक पाने वाले, समय पर न्याय न दिला पाने वाले इस अधिनियम की आवश्यकता ही क्या है या फिर इसकी कमियां क्या है? वर्ष 2007 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने एक शोध पत्र जारी किया था। शोध पत्र में भारतीय दंड संहिता की धारा 375, 354 और 377 के अंतर्गत खामियां पाई गई थी।

ये धाराएं क्रमशः बलात्कार, महिला की लज्जा भंग करना और अप्राकृतिक अपराध के मामले में प्रयुक्त किए जाते है। हालाँकि, इस तरह के उपाय में तमाम कमियाँ थीं, क्योंकि IPC विभिन्न खामियों के कारण प्रभावी रूप से बच्चे की रक्षा नहीं कर सका। धारा 375 पुरुष पीड़ितों या किसी को भी “पारंपरिक” संभोग के अलावा अन्य यौन कृत्यों से नहीं बचाता है। धारा 354 में “विनम्रता” की वैधानिक परिभाषा का अभाव है। यह एक कमजोर जुर्माना है और एक समझौता योग्य अपराध जैसा है। धारा 377 में “अप्राकृतिक अपराध” शब्द परिभाषित नहीं है। यह केवल उन पीड़ितों पर लागू होता है जो उनके हमलावर के यौन कृत्य से प्रभावित होते हैं और बच्चों के यौन शोषण को आपराधिक बनाने के लिए नहीं बनाया गया है।

पोस्को एक्ट लाने की वजह

इन्हीं खामियों को ध्यान में रखकर पॉक्सो एक्ट को लाया गया।इस एक्ट के अंतर्गत यौन शोषण को यौन उत्पीड़न, पॉर्नोग्राफी, अश्लील साहित्य जैसे विभिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है। इसके अंतर्गत यह भी कहा गया है कुछ परिस्थितियों को गंभीर अपराध माना जा सकता है। जैसे मानसिक रूप से बीमार बच्चों के साथ विश्वास की स्थिति में उसके साथ गलत आचरण किया जाता है तो इस अपराध माना जाता है। इस अभियान के तहत पुनः उत्पीड़न से बचाने के लिए पुलिस को बाल संरक्षक की भूमिका प्रदान की जाती है। इस अधिनियम की धारा 35 के उपधारा 2 के मतानुसार 1 वर्ष के अंतर्गत मामलों का निपटारा किया जाना चाहिए। इस अधिनियम के निगरानी के लिए राष्ट्रीय और राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग को प्राधिकार बनाया गया है।

अब आप सोच सकते हैं की अधिनियम में इस बात का जिक्र है कि 1 वर्ष में ही मामलों के निपटारे किए जाने कि सुनिश्चितता के बावजूद भी यौन हिंसा मामले में लगातार वृद्धि हो रही है। जो एक तरह से अधिनियम के क्रियान्वयन की खामियों की तरफ संकेत करते हैं। 2019 में इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस की एक रिपोर्ट में पॉक्सो एक्ट को सर्वश्रेष्ठ बताया गया था। आखिर यह भी सवाल उठता है कि आखिर किस आधार पर उस रिपोर्ट में पॉक्सो एक्ट को दुनियाभर के बाल एवं संरक्षण की दिशा में कार्य ने वाले अन्य कानूनों के मुकाबले बेहतर बताया गया है।

 एनसीआरबी रिपोर्ट

आंकड़ों को देखकर कह भी सकते हर 2 में से एक बच्चा यौन शोषण का शिकार होता है। एनसीआरबी ने अपनी रिपोर्ट 2018 में यह भी दिखाया है कि अधिकांश मामलों में पीड़ित के परिचित होते हैं। जिस वजह से पीड़ित या पीड़ित के परिवारीजन शिकायतों से पीछे हट जाते हैं। जम्मू कश्मीर के कछुआ का मामला हो या फिर उत्तर प्रदेश के उन्नाव की घटनाओं के बाद देश में जनआक्रोश का माहौल बन चुका था। तब सरकार ने पॉक्सो एक्ट में संशोधन का प्रावधान किया। प्रावधान किया गया कि 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का रेप करने वालों को भी मौत की सजा हो सकती है, लेकिन संशोधन के बावजूद भी बलात्कार के मामलों में कमी नहीं लाई जा सकी।

संशोधन के माध्यम से बलात्कार के मामले में मौत की सजा का प्रावधान करने के बावजूद भी मामले कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे है। I बढ़ते मामलों ने इस पर सवालिया निशान लगा दिया गया है कि मौत का प्रावधान होने के बावजूद भी देश में बाल यौन हिंसा के मामले क्यों बढ़ते जा रहे हैं? पॉक्सो अधिनियम के तहत 1023 अदालतों की स्थापना की योजना बनाई गई थी। सितंबर 2022 तक देश में 412 पॉक्सो अदालत और 732 फास्टट्रैक स्पेशल कोर्ट कार्यरत हैं, जैसा कि न्याय विभाग ने अपनी तरफ से जारी आधिकारिक सूचना में कहा है।

लगातार बढ रहे यौन हिंसा के मामले

बीते 10 सालों में जिस तरह से यौन हिंसा के बलात्कार के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। उसी 10 सालों में पॉक्सो एक्ट के तहत स्थापित किए जाने वाले अदालतों की संख्या को लेकर के यह भी सवाल उठता है कि पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत स्थापित किए जाने वाले अदालतों के प्रति सरकार शायद ही संवेदनशील है। पॉक्सो एक्ट में भी विशेषज्ञों द्वारा कुछ कमियां गिनाए गए हैं। जिसका दुरुपयोग और उन कमियों की वजह से इस अधिनियम को कमजोर माना जाता हैं।

धारा 22 कहती है बच्चों द्वारा की गई झूठी शिकायत दंडनीय अपराध नहीं मानी जाएगी। यह एक तरह से बचाव का खुला रास्ता है और बहुत से लोग इस इस छूट का लाभ उठाने के साथ-साथ इसका व्यापक स्तर पर दुरुपयोग भी करते हैं। इस अधिनियम के इतने सालों के बाद भी किसी भी प्रशासनिक निकाय द्वारा या क्षेत्रीय स्तर पर या राष्ट्रीय स्तर पर इसकी जागरूकता को लेकर बड़े जोर शोर से शायद ही कोई प्रयास किया गया होगा।

बाल यौन हिंसा रोकने के लिए लाया था एक्ट

बाल यौन हिंसा रोकने के उद्देश्य से लाई गई इस एक्ट को शायद ही उच्च प्राथमिक स्तर की या माध्यमिक स्तर की पुस्तकों में विशेष स्थान दिया गया होगा। लगातार बढ़ रहे केस के मामले ने न्यायतंत्र को प्रभावी बनाने में समस्या पैदा करने का काम किया हैं। जिससे पीड़ितों को केस लंबा चलने का डर बना रहता है। इसका सीधा और सबसे ज्यादा प्रभाव आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों पर पड़ता है। जिससे वह शिकायत करने से पीछे हट जाते हैं या चुप रहना ही बेहतर समझते हैं।

जरूरत है और समय की मांग है कि बाल यौन शोषण के बारे में जनता को जागरूक किया जाए, जागरूकता अभियान चलाया जाए। ताकि इन अपराधों की सूचना देने में कोई हिचकिचाहट न हो। इसके अलावा, जांच एजेंसियों को अच्छी तरह से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए और पेशेवरों जैसे कि जांच और परीक्षण के चरणों में शामिल चिकित्सा व्यवसायियों को कुशल होना चाहिए ताकि उनकी ओर से लापरवाही की कोई गुंजाइश न रहे। पॉक्सो अधिनियम पहले से ही प्रक्रिया को बच्चों के अनुकूल बनाता है और इस दृष्टिकोण का न्यायिक अधिकारियों, मजिस्ट्रेटों और पुलिस अधिकारियों द्वारा पालन किया जाना चाहिए ताकि पीड़ित बच्चे उन पर भरोसा कर सकें।

Nikhil Arvindu

मैं निखिल अरविन्दु राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर विगत 5 सालों से लिख रहा हूं।

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